धर्म से या कर्म से..(भाग–2)

 नमस्कार दोस्तो, चलो इसी प्रकरण को आगे बढ़ाते हुए अपने शीर्षक को सार्थक करते है जो कि है धर्म से या कर्म से? 

जैसा कि शीर्षक में ही समझ आता है कि बात हो रही है इस असमंजस की प्राप्ति किस प्रकार की जा सकेगी, धर्म के द्वारा या अपने किए जा रहे आम जीवन में कर्म के द्वारा। वैसे तो धर्म में भी कर्म को उपरोक्त स्थान दिया गया है परंतु यहां असमंजस उन लोगो के लिए है जो कहते है कि भाई धर्म इत्यादि में कुछ नही रखा जो है वो कर्म ही है। कर्म यानी कि जो हम अपने दैनिक कार्यों को करते है और उसमे कुछ सही और कुछ गलत कार्यों को शामिल कर बैठते है। बैठते शब्द मैने इसलिए इस्तेमाल किया है क्योंकि कुछ गलत कर्म हमे पता भी नही चलता कि हम कर चुके है,अब इस चर्चा का विषय कि क्या गलत है और क्या सही , वह अलग है लेकिन इस पर हम आगे बात करेंगे।

आजकल के युवा और कुछ बड़े भी यह कहते सुने जाते है कि धर्म को मानने से कुछ नही होता, जो है सब यहीं है बाद में कुछ नही। मेरे विचार से ये स्थिति व्यक्ति में तब उत्पन्न होती है जब उसे कुछ ऐसा कार्य करना होता है जिसमे उसकी रुचि है परंतु धर्म के अनुसार वह गलत है। क्योंकि मुझे ऐसा नहीं लगता कि कोई भी धर्म कुछ गलत शिक्षा देता है। उदाहरण के लिए यदि कोई स्थिति ऐसी पैदा होती है कि एक व्यक्ति किसी प्रकार के लेनदेन में दूसरे का हक मार रहा है तो अपने आप को अपने लोगो में सही साबित करने के लिए दलील देता है कि कुछ नही होता सब यहीं है और किसी अन्य की बात करता है कि उसने भी तो इस प्रकार साम–दाम–दण्ड इत्यादि किए तभी तो धनवान बना। यानि कि सभी अपने हित में ही बात करते है जो उन्हे अच्छी या सही लगती है यानि कि यह, धर्म को एक तरफ करके कर्म को गलत रूप में किया जा रहा है और अपने आप को सही साबित करने का प्रयास किया जा रहा है। लेकिन मैं दावे के साथ यह बात रख सकता हूं कि यदि यही व्यक्ति कुछ समय के लिए शांत बैठकर आत्मचिंतन करें तो उसे बोध होगा कि क्या सही होना चाहिए और क्या मैं गलत कर बैठा।

धर्म का कर्म से सीधा संबंध है ये हमे समझना जरूरी है।

आगे अपने इन्हीं विचारों के साथ आगे मिलते है और अपने अगले ब्लॉग में इन्हीं विषयों पर समझने और समझाने का प्रयास करेंगे।

🙏🏻धन्यवाद

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